Be Social with Priyanka ॥ Part III || by Swapnil Saundarya ezine
SWAPNIL SAUNDARYA e-zine
( Vol- 05, Year - 2018, SPECIAL ISSUE )
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सामाजिक मुद्दों के विभिन्न पहलू ..........
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भारत एक प्राचीन देश है .यदि इसके उद्भव की बात की जाए तो हमारे देश की सभ्यता लगभग 5000 वर्ष पुरानी है . इसलिए भारतीय समाज की प्रकृति बहुत ही जटिल व पुरानी है.
भारत देश विभिन्न जातियों, धर्मों , सम्प्रदायों का मिश्रण है.इसलिए हम यहां पर विभिन्नता में एकता की बात करते हैं. कहते हैं समाज जितना सरल होगा ...सामाजिक मुद्दे उतने ही कम होंगे. लेकिन हमारे समाज का ढाँचा अत्यंत जटिल है व सामाजिक मुद्दों की संख्या भी उतनी ही ज्यादा है. सामाजिक मुद्दों के अंतर्गत गरीबी, बेरोजगारी , भ्रष्टाचार , बाल विवाह, महिलाओं के साथ होने वाले दुराचार, आतंकवाद आदि समस्याएं शामिल हैं. ये सभी मुद्दे अत्यंत गंभीर हैं व इनकी प्रकृति बहुत जटिल है. अत: एक ही समय पर विभिन्न विषयों पर विचार विमर्श करना संभव नहीं हो सकता लेकिन इन सामाजिक मुद्दों को एक दूसरे से भिन्न भी नहीं कर सकते क्योंकि ये सभी मुद्दे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं.
हम विश्व स्तर पर अपने देश को एक विकसित राष्ट्र के रुप में प्रस्तुत करते हैं और यह सत्य है कि भारत दुनिया में वैज्ञानिक,तकनीकी , आर्थिक आदि क्षेत्रों में प्रगति भी कर रहा है लेकिन जहाँ तक सामाजिक विकास की बात है तो भारत विश्व के निचले स्तर के देशों में से एक है. भारत के मानव विकास सूचकांक ( HDI ) 2013 की रिपोर्ट के अनुसार 187 देशों में भारत को 135वें स्थान पर रखा गया है. यह आंकड़ा यह दर्शाता है कि हमारे समाज में आज भी रुढ़िवादी मान्यताओं , विश्वासों व अनेकों नकारात्मक दृष्टिकोण विद्यमान हैं जो एक बेहद गंभीर विषय है.
सामाजिक मुद्दों के अंतर्गत महिलाओं से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर यदि बात की जाए तो हम पाएंगे कि हमारे देश के संविधान में समानता का अधिकार निहित है पर वास्तविकता में क्या इस अधिकार का लाभ समाज में सभी लोगों को मिल पा रहा है.....यह कह पाना कठिन है.
लड़की के जन्म पर आज भी बहुत से परिवार बेहद नाखुश हो जाते हैं. कुछ तो लिंग परीक्षण करके जानने का प्रयास करते हैं कि कोख में पल रहे उस जीव का अस्तित्व क्या है . एक लड़्की को अपनी माँ के गर्भ से ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है. जन्म के उपरांत उसे किसी न किसी पर जीवन पर्यंत निर्भर रहने की सीख दी जाती है. बचपन में उसे अपने पिता व भाई के संरक्षण में रहना पड़्ता है, विवाह के उपरांत पति व बुढ़ापे में बच्चों के संरक्षण में जीवन व्यतीत करना पड़ता है....आखिर क्यों नहीं वह पूरी तरह से आत्मनिर्भर होकर समाज की मुख्यधारा से जुड़ पाती है?
लड़की के पैदा होने के साथ ही माता- पिता की कुछ चिंताएं उजागर होने लगती हैं ..जैसे उसकी शिक्षा, दहेज व सुरक्षा . आज भी समाज में ऐसा बहुत बड़ा वर्ग मौजूद है जो दहेज को समाज की बुराई नहीं मानता .सुरक्षा की बात करें तो आज भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं ...आए दिन महिलाओं , मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार , छेड़्खानी की घृणित घट्नाएं हमारे सामने आती हैं ..महिलाओं की सुरक्षा आज एक बड़ा सामाजिक मुद्दा है.
एन.सी. आर. बी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो )डाटा के अनुसार भारत में प्रतिदिन 95 बलात्कार होते हैं अर्थात औसतन प्रति 15 मिनट में एक रेप. यह आंकड़ा रुह में कंपन पैदा करता है.
इसके अतिरिक्त लड़के के जन्म पर पूरे परिवार में खुशियों की लहर दौड़ जाती है ...कुछ परिवारों में तो लड़्कों की जायज़ -नाजायज़ हर माँग की पूर्ति हेतु माता -पिता दिन रात लगे रहते हैं. लड़्कों के हर गलत कार्य को उनकी मर्दानगी में इज़ाफा होने के रुप में समझा व स्वीकारा जाता है ......इसके विपरीत एक लड़्की को हर पल उससे कोई गलती न हो जाए उसे कैसे कपड़े पहनने चाहिये, कैसे लोगों से दोस्ती करनी चाहिये, कितने बजे तक घर वापस आना चाहिये आदि नसीहतें दी जाती है.उन्हें बार-बार समझाया जाता है कि ऐसा कोई काम मत करना जिससे उनके परिवार की इज़्ज़त पर आँच आए.......मान प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचे.
लड़्कियों के प्रति समाज के ऐसे रवैये पर प्रश्न उठता है कि इस प्रकार की शिक्षा लड़्कों को क्यों नहीं दी जाती है कि वे ऐसा कोई कार्य न करें जिसके कारण किसी लड़की के आत्मसम्मान को कोई ठेस पहुँचे .
एक तरफ एक पिता- भाई अपनी बेटी-बहन की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहता है कि कहीं उसके साथ कोई छेड़्खानी या दुराचार न हो जाए ....तो दूसरी तरफ वही पिता - भाई किसी और की बेटी-बहन को गलत नज़रिये से देखने में परहेज नहीं करता .....क्या यह हमारे समाज में पलने वाली दोगली मानसिकता का परिचायक नहीं ?
समाज के निर्माण में स्त्री -पुरुष दोनों की अहम भूमिका है ....फिर भी महिलाओं के प्रति इतना तंग नज़रिया व विचारधारा ,कहाँ तक जायज़ है?
एक लड़की का रात भर घर से बाहर रहना या देर से वापस आना ...उसके कपड़े ...उसके होंठो की लिप्सटिक समाज के तंग नियमानुसार उसके चरित्र को पल भर में परिभाषित कर देते हैं लेकिन पुरुषों के ऊपर ऐसे दकियानूसी नियम लागू नहीं होते.
हमारे समाज में लड़्कियों को देवी का रुप माना जाता है पर सत्य तो यह हा कि उसे अपने परिवार तक में सम्मान व अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ता है. लैंगिक समानता के क्षेत्र में जागरुकता लाने के लिए अनेकों कार्य किए जा रहे हैं पर फिर भी लोगों की संकीर्ण मानसिकता में बदलाव नहीं आ रहा है.
हमारे समाज में निहित उच्च, मध्यम व निम्न वर्गों के लोगों की भिन्न-भिन्न समस्याएं सामने आती हैं जिनके आधार पर उनकी मानसिकता में असमानता देखने को मिलती है.
उच्च वर्ग में भी महिलाएं अनेकों प्रकार के शोषण का शिकार होती हैं लेकिन उनके साथ हुई घट्नाओं को घर की चहारदीवारी के भीतर दबा दिया जाता है ताकि उनकी इज़्ज़त में कमी न आए . निम्न वर्ग में महिलाओं के साथ हुई ऐसी घटनाएं आसानी से लोगों के सामने आ जाती है.
महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटनाओं को उनके छोटे कपड़ों से जोड़ कर देखा जाता है . कुछ लोगों को कहते सुना है कि छोटे कपडों के कारण पुरुष उत्तेजित होकर ऐसी हरकतें करते हैं पर एक छोटी बच्ची या 60-70 वर्ष की वृद्धा के साथ जब ऐसी घृणित वारदातों को अंजाम दिया जाता है तब उन बच्चियों या वृद्ध महिलाओं की कौन से हरकतें या कपड़े पुरुष मन को इतना उत्तेजित कर देते हैं जिसके कारण वे ऐसे जघन्य अपराधों को अंजाम देते हैं. क्या कपड़े लोगों की विचारधारा बदलने का कार्य करते हैं ? बलात्कार का सीधा संबंध सत्ताविमर्श से है, महिला की पोशाक से नहीं. लेकिन फिर भी अपराध के लिए अपराधी को नहीं, उस अपराध का शिकार होने वाले व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराया जाता है.
यह वही तर्क है जो खाप पंचायतों से लेकर सभी धर्मों के झंडाबरदार कमोबेश देते रहते हैं और जिसे कुछ राजनीतिक नेता भी कई बार बिना समझे और अक्सर खूब समझ बूझ कर दुहराते हैं.
गांव से लेकर बड़े शहरों तक के कॉलेजों में छात्राओं के लिए समय समय पर ड्रेस कोड लागू होता रहता है और उन पर अक्सर पश्चिमी वेशभूषा न पहनने का प्रतिबंध लगाया जाता है. लोगों की सोच यह है कि यदि कोई लड़की जींस शर्ट या किसी और किस्म के पश्चिमी कपड़ों को पहन कर घर से बाहर निकलती है, तो वह परोक्ष रूप से पुरुषों को अपनी ओर आकृष्ट करना चाहती है और उन्हें छेड़खानी करने के लिए उकसा रही है. इसलिए यदि उसके साथ किसी किस्म का यौन दुर्व्यवहार होता है, यहां तक कि यदि वह बलात्कार की शिकार भी होती है, तब भी इसके लिए वही जिम्मेदार है. यानि अपराध के लिए अपराधी नहीं, उस अपराध का शिकार होने वाला व्यक्ति जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है.
लेकिन क्या यह सही है? भारत में हर वर्ष अब लगभग 25,000 बलात्कार दर्ज हो रहे हैं. सभी जानते हैं कि बलात्कार की शिकार अनेक महिलाएं पुलिस तक जाने और शिकायत दर्ज कराने की हिम्मत नहीं कर पातीं. इसलिए हकीकत में जितनी घटनाएं होती हैं, उनसे बहुत कम की रिपोर्ट हो पाती है. लेकिन 25,000 का आंकड़ा भी कोई कम नहीं है. इससे स्थिति की भयावहता का पता चलता है. और जब कभी बलात्कार का शिकार बनने वाली पीड़िता शिकायत करने का साहस दिखाती है, तो अक्सर पुलिस उसकी रिपोर्ट ही दर्ज नहीं करती.
बलात्कार का संबंध सत्ता और वर्चस्व से है. बलात्कारी का उद्देश्य अपने शिकार के शरीर पर जबर्दस्ती कब्जा करके उस पर अपनी सत्ता और वर्चस्व कायम करना है, उसकी अस्मिता को अपमानित करके उसके व्यक्तित्व को कुचलना है, और इस तरह बलपूर्वक अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करना है. इसका संबंध न पश्चिमी वस्त्रों से है और न ही भारतीय वस्त्रों से. इसका संबंध उस पुरातनपंथी दकियानूसी पितृसत्तात्मक मानसिकता से है जो स्त्री को पुरुष के सामने दीन हीन, बेबस और लाचार ही देखना चाहती है. जिसके लिए स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व ही उसके दुश्चरित्र होने यानि हरेक के लिए सुलभ होने का सबूत है. बलात्कार को अक्सर बदला लेने के हथियार के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.
इसके अतिरिक्त समाज में विद्यमान दोहरी मानसिकता की गहराई में जाएं तो हम पाएंगे कि बहू और बेटी के बीच भी पक्षपात किया जाता है. हमारे समाज में बहू और बेटियों में फर्क की धारणा सालों से चली आ रही है ना जाने कब ये फर्क खत्म होगा फर्क की ये खायी कब खत्म होगी?कभी -कभी तो ऐसा लगता है कि बहू और बेटियों में इतना अन्तर है कि जैसे ये नदी के दो किनारें हो जो कभी नहीं मिलेंगे.... ना जानें क्यों लोग ये भूल जाते हैं कि जिस लड़की को वो बहू बनाकर अपने घर में लेकर आए हैं वो भी किसी की बेटी है ................
ये कुछ सवाल हैं और इनके जवाब शायद हम सभी के भीतर उपस्थित भी हैं.... जरुरत है आत्ममंथन की.
भारत हमेशा से ही पुरुषप्रधान देश रहा है ... हमारे समाज की पितृसत्तात्मक सोच के कारण महिलाओं को हमेशा ही पुरुषों से दबना पड़ा है. यदि संयोगवश एक स्त्री अपने परिश्रम व लगन के कारण किसी पुरुष से ऊँचे पद पर पहुँच जाए तो पुरुष का अहम इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता और वो उसे उसके स्तर से नीचे गिराने हेतु मर्यादा की हर सीमा लांघने से भी परहेज नहीं करता.
समाज में विद्यमान ये कुधारणाएं हमारे समाज को दिनों दिन खोखला करती जा रही हैं. स्वस्थ समाज की आधारशिला उस सामाज में रहने वाले लोगों की स्वस्थ मानसिकता है.कहते हैं कि सोच बढ़ेगी तो देश बदलेगा और साथ ही साथ प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा. किंतु यह आसान कार्य नहीं पर नामुमकिन भी नहीं . सर्वप्रथम समाज में महिलाओं की स्थिति को सुदृढ़ बनाने हेतु सकारात्मक प्रयास करने होंगे .नारी अबला नहीं सबला है लेकिन वह अपने अधिकारों के लिए जागरुक नहीं है. वह अपने विचारों को स्वतंत्रता से ज़ाहिर करने से भयभीत होती है . लेकिन हमें अपने हितों की रक्षा व आत्मसम्मान के लिए जागरुक होना होगा. संकीर्ण विचारधाराओं व रुढ़िवादी धारणाओं की बंदिशों से बाहर निकल खुले आसमां में पँख फैला कर उड़ने का स्वप्न देखना होगा और इस खूबसूरत स्वप्न को यथार्थ में तब्दील करने हेतु अथक परिश्रम करना होगा.
-प्रियंका सिंह
सहा. प्रवक्ता ( समाजशास्त्र )
महिला महाविद्यालय
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वनस्थली विद्यापीठ , राजस्थान से जीव विज्ञान विषय में गोल्ड मेडल के साथ बी.एस.सी और समाज शास्त्र में परास्नातक व बी.एड की उपाधियों से अलंकृत प्रियंका ( Priyanka Singh ) , सी टी ई टी ( CTET ) व नेट ( NET ) की परीक्षा भी सफलतापूर्वक उत्तीर्ण कर चुकी हैं . वर्तमान समय में महिला महाविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में सहा. प्रवक्ता व एन.सी.सी का कार्यभार सँभालने के साथ -साथ महाविद्यालय की स्पोर्ट्स कनवेनर हैं. योगा में विशेष रुचि रखने वाली प्रियंका का मानना है कि वर्तमान समय में लोगों में शिक्षा का प्रतिशत तो बढ़्ता जा रहा है किंतु उनकी सोच व उनके विचारों में अभी भी संकीर्ण व दकियानूसी विचारधाराओं का समावेश है जो हमारे समाज के लिए हितकर नहीं. लोगों की सोच में सकारात्मक परिवर्तन उनके स्वयं के चिंतन पर ही निर्भर करता है.
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