WARLI - Indian Folk Paintings Special Part : II by ~ SWAPNIL SAUNDARYA e-zine
SWAPNIL SAUNDARYA e-zine
Presents
'WARLI'
Indian Folk Paintings Special
Part : II
Published by : Aten Publishing House
Swapnil Saundarya ezine : An Intro
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Rishabh Shukla
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Chief Writer
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वर्ली :: महाराष्ट्र की लोकप्रिय चित्रकला
लोकचित्रकलाएँ भारत की प्राचीनतम् और समृद्ध लोक कलाओं का एक अभिन्न अंग हैं। यह अन्य लोककलाओं की तरह हमें एक दूसरे से जोड़ती हैं। इनकी उत्पत्ति किसी शास्त्राीय कला की तरह मापदण्डों पर नहीं हुई है यह हमारे हृदय के भावों का दर्पण हैं। इन चित्राकलाओं को देखकर मन में जिज्ञासा के भाव उत्पन्न होते हैं जिज्ञासा उसके सामाजिक संदर्भों को समझने की, उसकी शैली और विविधता को जानने की, उसके रूप को सराहने की इत्यादि।
भारतीय लोक चित्र कलाओं में देवी देवता, ऋतुएं, जनजीवन से जुड़े दृश्य, लोक गाथाओं की नायक और नायिकाएं, वन्य जनजीवन इत्यादि को अनेक रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। इन कला रूपों में प्रयोग में आने वाली वस्तुएं स्थानीय उपलब्धता के अनुसार प्रयोग की जाती है।
लोक चित्रकलाओं में महिलाओं की मुख्य भूमिका रही है। ये उत्तर प्रदेश की कोहबर, बिहार की मधुबनी, चौक पुरना और रंगोली जो अन्य नामों से भी जानी जाती है जैसे कि अल्पना, अलोपना, अइपन, भूमिशोभा, कोलम। इनमें से बहुत सी चित्रकलाएं दीवारों या ज़मीन पर मिट्टी का लेप कर उनमें रंग भरने से बनायी जाती हैं। यह कृतियां मन को मोह लेती हैं। महिलाओं के लिए यह उनके जीवन का अभिन्न अंग है। महिलाएं ही स्वस्थ साझी विरासत की वाहक हैं और शताब्दियों से अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह करती आयी हैं।
वर्ली चित्रकला महाराष्ट्र की लोकप्रिय चित्रकलाओं में से है। रेखाओं और त्रिकोणों का प्रयोग कर इस चित्रकला में जीवन चक्र को दिखाया गया है। इन चित्रों को बनाने के लिए सफेद रंग का प्रयोग होता है। यह रंग चावल के चूरे से बनाते हैं। इन चित्रों को आदिवासी अपने घर की बाहरी दीवारों पर चित्रित करते हैं।
महाराष्ट्र के थाणे जिले के आसपास दामु और तालासेरि तालुके में रहने वाली वर्ली नामक आदिवासी जनजाति के नाम पर ही इस पारंपरिक कला को वर्ली पेंटिंग कहा जाता है, क्योंकि भित्ति चित्र की यह शैली महाराष्ट्र की इसी जनजाति की परंपराओं और रीति-रिवाजों से जुड़ी है। महाराष्ट्र का यह क्षेत्र उत्तरी और पश्चिमी दिशा के सह्याद्री पर्वतमालाओं के बीच स्थित है। यहां के लोगों की आजीविका का मुख्य आधार कृषि है। भारत के अन्य सभी भागों की तरह यहां के किसान भी धान की फसल कटने के बाद पहली फसल की पैदावार अपने कुलदेवता को समíपत करते हैं, उसके बाद ही उस फसल को भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
इस अवसर पर वे अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों को भोजन कराते हैं। इस आयोजन को मराठी में नवाभात कहा जाता है। नवाभात के अवसर पर कृषक परिवार की स्ति्रयां अपने घर के मुख्यद्वार और घर की बाहरी दीवारों को मिट्टी और गोबर से लीप कर उस पर कोयले के पाउडर में बरगद या पीपल के पेड़ के तने से निकाले गए गोंद को मिलाकर पहले काले रंग की पृष्ठभूमि तैयार करती हैं। गोंद का इस्तेमाल रंग को पक्का करने के लिए किया जाता है। फिर उस पर गेरू और चावल के आटे से सुंदर आकृतियां उकेरी जाती हैं। इन आकृतियों को बनाने के लिए बांस से बनी बारीक कूची का इस्तेमाल किया जाता है।
वक्त के साथ चित्र कला की इस पारंपरिक शैली में काफी बदलाव भी आया है। सिर्फ घर की दीवारों पर चावल के पेस्ट या गेरू से बनाए जाने वाले ये चित्र अब कागज और कैनवस पर भी बनाए जाने लगे हैं। अब प्राकृतिक रंगों के बजाय बाजार में बिकने वाले कृत्रिम रंगों और बांस की कूची के बजाय पेंट ब्रश का इस्तेमाल किया जाने लगा है। साथ ही अब यह चित्रकला अपनी पुरानी पारंपरिक शैली से अलग हटकर विश्वव्यापी रूप से कलाकारों की आत्माभिव्यक्ति का भी माध्यम बन चुकी है। अब वर्ली पेंटिंग केवल वर्ली जनजाति के लोगों के बीच सीमित न रह कर महानगरों में रहने वाले आधुनिक युवा चित्रकारों की रुचि का भी विषय बन चुकी है।
महाराष्ट्र के सभी प्रमुख शहरों जैसे मुंबई, पुणे, औरंगाबाद और नागपुर के प्रमुख बाजारों में हर आकार की वर्ली पेंटिंग आसानी से उपलब्ध मिल जाती है। अलग-अलग आकारों, कैनवास और कृति के अनुसार इसकी कीमत पचास रुपये से लेकर पांच हजार रुपये तक होती है। बाजार में कड़ी प्रतिस्पर्धा होने के कारण मोलतोल करने के बाद दुकानदार आसानी से इसकी कीमत को कम कर देते हैं। इसलिए किसी भी शहर में जाएं तो वर्ली पेंटिंग खरीदते समय जल्दबाजी न करें, बल्कि पहले दो-चार दुकानों पर देखने व बाजार की माहौल समझने के बाद ही अपने घर के लिए सही पेंटिग का चुनाव करें। में वर्ली पेंटिंग हर आकार में देखने को मिलती है।
वर्ली पेंटिंग खरीदते वक्त बरते जाने वाली सावधानी
वर्ली पेंटिंग खरीदते समय उसे एक कार्ड बोर्ड पर रखकर साफ सूती कपड़े से तीन-चार बार लपेटकर कपड़े के ऊपर अखबार लपेट कर उसे पैक करवाना चाहिए। घर लाने के बाद पेंटिंग की पैकिंग सावधानी के साथ खोलनी चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि पेंटिंग पर उंगलियों के निशान न पड़ें। इसलिए पेंटिंग को हमेशा दोनों किनारों से पकड़ना चाहिए। दीवार पर पेंटिंग लगाते समय ध्यान रखें कि पेंटिंग सूर्य की सीधी रोशनी और नमी से बची रहे क्योंकि ज्यादा तापमान और नमी से पेंटिंग के जल्दी खराब होने का डर बना रहता है। पेंटिंग की ग्लास फ्रेमिंग कराते समय यह ध्यान जरूर रखना चाहिए कि उसमें केमिकल्स का इस्तेमाल न हो क्योंकि केमिकल्स के प्रभाव से इसके प्राकृतिक रंग नष्ट हो सकते हैं। फ्रेमिंग के समय कैनवस के कपड़े ज्यादा खींचना नहीं चाहिए। अगर पेंटिंग को पैक करके लंबे समय के लिए सुरक्षित रखना है तो उसे दोनों तरफ से एसिड फ्री कागज में लपेट कर पैक करना चाहिए।
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